दिल का दर्पण
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तुम्हारा दिया वह फ़ूल
आज भी सुरक्षित है
वर्षों से जीवाश्म की भांति
पुस्तक के मध्य दबा
वो चटक रंग नहीं रहे
गंध भी उड सी गई है
परन्तु जब भी
पुस्तक खुलती है
वो फ़ूल नजर आता है
यादों की वयार बहती है
तुम्हारे संग गुजरे
वो पल छिन
फ़िर से एक बार जीता हूं
उपवन व मरू में बिचरता
मुस्कान व अश्रु रस पीता हूं
सोचता हूं “प्रेम” की आयु
जीवाश्मों सी लम्बी होती है
जो समय की मिट्टी और
बिछोड की चट्टानों में
दशकों तक दबे रह कर
बाहर से भले शुष्क ठूंठ दिखे
भीतर से सदा हरित रहता है
मोहिन्दर कुमार
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