दिल का दर्पण
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फ़िर आंधियों के भी अपने मकां होते
गर रफ़्तार ही मंजिलों का पता होती
हर दर पर खुशियां नहीं देती दस्तक
ऐसा होता गर रंजिशें इक दास्तां होती
हर दिल न बुनता ये अक्स सतरंगी
तासीरे मुहब्बत गर इक खता होती
जिन्दगी मेरी कब शिकवा किया तुझसे
तब भी गले लगाता गर तू कजा होती
तोडे सभी रिश्ते मगर यादें रही बाकी
रूह इन कर्जों से कब है रिहा होती
मोहिन्दर कुमार
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