दिल का दर्पण
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बायसे तकलीफ़ मगर है अजीज वो मुझको
जज्वा-ए-दिल है खुद से जुदा मैं कैसे करूं
अपने ख्वाबों की बदौलत मैं यहां तक पहुंचा
है गर एक टूट गया मैं भला काहे को डरूं
रात की चादर में हों चाहे लाख अंधेरे सिमटे
जुगनू बन के सही कोई कोना रोशन तो करूं
ओढ कर खोल कोई न जिया जायेगा मुझसे
क्यों न हालात से लड मौत मैं खुद की मरूं
कुछ तो करना है हाथ की लकीरों के मुताबिक
चाहता हूं कुछ एक रंग अपनी मर्जी के भरूं
मोहिन्दर कुमार
http://dilkadarpan.blogspot.in
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