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सुबह का भूला – लघु कथा

दिल का दर्पण
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“नमस्कार घोषाल दा, क्या चल रहा है?” कहते कह्ते दास बाबू गेट खोल कर अन्दर आ गये जहां घोषाल बाबू बरामदे में बैठे चाय की चुसकी ले रहे थे. कुछ खास नही दास बाबू बस अभी अभी दफ्तर से आया था सोचा एक कप चाय ही पी लूं. बैठिये… एक कप चाय चलेगी ? “नहीं नहीं घोषाल दा, आप को बाहर बैठे देख कर चला आया “, दास बाबू अपनी कलाई पर बंधे मोतिये के गजरे को सूंघते हुए बोले और कुर्सी खींच कर बैठ गये. “कहां की तैयारी है दास बाबू ?” घोषाल दा ने पूछा. “बस देवदर्शन को जा रहा हूं” ठहाका लगाते हुए दास बाबू बोले. चलिये आप को भी ले चलें. आप तो शायद कभी वो सीढियां चढे ही नहीं. आप ठीक कह रहे हैं… दास बाबू, एक बार कोशिश की थी, रास्ते से ही वापस आना पडा. ऐसा कैसे हुआ, दास बाबू का कौतुहल जागा. मत पुछिये आप, “अहसास मर न जाये तो इन्सान के लिये -काफी है राह कि इक ठोकर लगी हुयी” कह्ते हुये घोषाल बाबू ने एक लम्बी सांस भरी. यह सुनकर दास बाबू पूरा किस्सा सुनने को आतुर हो उठे. बहुत अर्सा पहले की बात है, कुछ यार दोस्त मुझे साथ ले गये. शाम का धुन्धलका फैला हुआ था और बाज़ार अपनी पूरी जवानी पर था. पान की दुकान पर हम लोग पान लगवा रहे थे तभी देखा दो तीन हट्टे कट्टे बदमाश से लगने वाले आदमी एक १७ या १८ साल की लडकी को ज़बरदस्ती खींच कर ले जा रहे थे. लडकी छूटने के लिये छटपटा रही थी और गुहार लगा रही थी. आस पास के लोग उसे छुडाने की जगह हंस रहे थे. मुझे लगा ये मेरी १५ साल पहले की खोई हुई बेटी ही है जिसकी याद में मेरी पत्नी ने बिस्तर पकड लिया था और मौत को गले लगा लिया था. वो मेरे सामने आज आ भी जाये तो मैं उसे पहचान नही पाऊंगा क्योंकि जब वो बिछुडी थी वो ३ साल की थी. मुझसे वहां पर और रुका न गया. दोस्तों ने बहुत रोका मगर मैं घर के लिये पलट पडा और फिर कभी उधर देखने की हिम्मत ही न हुयी. कह्ते कह्ते घोषाल बाबू की आंखें छलछला आयीं.

घोषाल दा आपने मेरी आंखे खोल दी, मुझे दलदल से निकाल लिया मैं आप का आभारी हूं कह कर भरे मन से दास बाबू उठ खडे हुए और कलाई पर बंधे गजरे को उतार कर पास रखे एक गमले में डाल कर गेट से बाहर निकल अपने घर की और चल पडे. शायद सुबह का भूला शाम को घर वापस जा रहा था.

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