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मिथ्याबोध

दिल का दर्पण
दिल का दर्पण
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अपने जीवन में मनुष्य न जाने कितने पडाव पार करता है कितनी ही उपलब्धियां पाता है परन्तु क्या यह सब अपने बलबूते पर सम्भव है अथवा यह एक “मिथ्याबोध” मात्र है.
इसी विषय पर “नदी” को माध्यम बना कर कुछ लिखने का प्रयास किया है. सभी पाठकों की प्रतिक्रिया मेरे लिये बहुत मुल्यवान होगी और यह तय करेगी कि मैं अपनी बात आप तक पहुंचाने में किस हद तक सफ़ल रहा.

गगन छूने की मंशा में
तने पर्वत-शिखर पर कहीं
एक चुलबुली सूर्य-किरण
सफ़ेद बर्फ़ को टटोलती
धीमे से कान में कुछ बोलती

जाने क्या बात थी बर्फ़
भीतर ही भीतर पिघल
इक धार सी बनकर बहने लगी
ढलानों पर इक सरसराहट हुई
जड़ चेतन हुआ, राह बनने लगी

धारा झरना बनी और झरने लगी
शांत सोईं घाटियां सुगमुगाने लगी
टकरा पत्थरों से जल शोर करने लगा
धारा से धारा मिली रूप हुआ कुछ बड़ा

तलहटी तक पहुँचते बन गयी इक नदी
घौर गर्जन समेटे और उफ़नती हुई
बल खाती हुई, लहराती हुई
जो सामने आ गया, साथ बहाती हुई
जहां कोई वाधा मिली, झील सी हो गई
फ़िर सिर से गुजर, सब बहा ले गयी

अब तो किनारे भी उससे डरने लगे
जो फ़ंलाग जाते थे उछालों से उसको कभी
अब दूर जा कर पुलों पर से गुजरने लगे
फ़िर और कुछ नदियों से संगम हुआ
आ गया उफ़ान मैदानों तक बहता हुआ
नदी अब एक महानदी हो गई

पाट चौड़े हुए मगर गति मध्यम हुई
शुद्ध शीतल धारा का रूप अब न रहा
रसायनो की झाग स्तह पर थी तैरती
किनारे दल दल बने, इक बू सी फ़ैलती
शहरी गंदगी के परनाले और मिल गये
उजला जल भी सियाह सा लगने लगा
हर पल आगे बढ़ती हुई वो थी सोचती
छोड़ पर्वत शिखर वो यहां क्यों आ गई
इस गति से तो थी वो जड़ ही भली
क्यों सूर्य-किरण की सलाह उसे भा गई
बस एक बहने के उन्माद से मात खा गई

था अन्तिम चरण सागर से मिलन की घड़ी
कई धाराओं में इक महानदी बंट गयी
न पहले सा वेग, न कोई भयावह गर्जना
न अपनी विराटता का कोई ओज था
समक्ष सागर के थी वो मात्र इक धार सी
कुछ क्षण में बनेगी भूतकाल का एक अंश
यही अस्तित्व विहीनता दे रही थी एक दंश
वो स्वतंत्रता व विशालता का बोध
आज शून्य सा था उसे लग रहा

इस पड़ाव पर विलय के वो थी सोचती
वो बहाव उसका नहीं….. ढलानों का था
वो शोर उसका नहीं…. चोट खाई चट्टानों का था
वो तो जड़ थी….. जो वेग था
वो था……सूर्य-किरण का दिया
विशालता उसकी न अपने कारण से थी
कई धाराओं ने स्वंय को, उसमें था खो दिया
जो शिथिलता उसे अन्त में थी आ कर मिली
वो सब उसकी बहायी हुई रेत और मिट्टी से थी
दोषी कोई नहीं, स्वंय के मिथ्याबोध थे
सागर में मिलना उसकी नियति ही थी

मोहिन्दर कुमार
http://dilkadarpan.blogspot.com
98 992 05557

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