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प्रतीक्षा

दिल का दर्पण
दिल का दर्पण
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प्रतिक्षा

किँचित समय नहीँ है अपने पक्ष मेँ
जब शब्दोँ पर भारी मौन हो
अन्तर्मन स्वँय से पूछे कि तुम कौन हो
अस्तित्व जब लगे स्वँय का
खेत मेँ उगी खतपतवार सा
या अलमारी मेँ बिछे पुराने अखबार सा
जर्जर प्लस्तर उखडी दीवार सा
बेरँग टूटे फूटे नाम मात्र किवाड सा
जो न किसी को रोक पाता है
न स्वँय ही एक स्थान पर रुक पाता है
चूलेँ जिसकी हिल गयी हैँ
बरसोँ की ठेलमठेल मेँ
चोखटोँ ने जिससे किनारा कर लिया
झुक गया है जो समय की थाप से
ग्लानि है जिसे अपने आप से
प्रतिक्षारत है जो उस घडी का
साथ छोडती आखरी कडी का
जब धराशायी होगा वो धम से
टुकडे टुकडे हो कर आग मेँ जलेगा
छुटकारे के लिये जीवन के तम से
राख उड कर खाक मेँ मिल जायेगी
चलती फिरती एक कृति एक माला के साथ
दीवार पर बन एक तस्वीर टँग जायेगी
मूक साक्षी जग के इस व्यवहार की
उस पर से झडेगी धूल जब
प्रतिक्षा मे किसी त्योहार की.

मोहिन्दर कुमार
http://dilkadarpan.blogspot.com
Delhi ( 9899205557 )

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