दिल का दर्पण
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आज तक सींचते रहे
अपने प्यार के अमृत से
मुझ निर्जीव ठूंठ को तुम
और जब कौंपलें अंकुरित हुई हैं
तब छोडकर जाने लगे हो
कैसे रोकूं मैं तुम्हें
है नही तुम पर कुछ
अधिकार विशेष मेरा
परन्तु जाते जाते यह भी सुनलो
मुर्झा जायेंगी कौंपलें सब
जो तुम्हारे स्पर्श से पल्लवित हुई
केवल वही ठूंठ रह जायेगा
जो तुम्हारे आगमन से पूर्व था
क्योंकि तुम्हीं तो मेरा बसंत हो
मोहिन्दर कुमार
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